ज़िंदगी को कुछ यूं देखा करीब से मैने
जो सोचा था उससे काफी दूर दिखी मुझे
कहां तो सपनों में एक आकाश था उनमुक्त
यहां से वहां वहां से यहां उड़ता फिरता था
जीवन की कठोरता से तब नही था वाकिफ
बस यही सोचता था की आज हीं है सब कुछ
कल की चिंता नही थी जब तक मन में
मन था बादल और दिल था मोर
जीवन के हर पहलु से जब होने लगी तकरार
तब जाना की सपने तो सच में हीं
होते हैं कांच की तरह क्षणभंगुर
देखने में तो लगते हैं काफी मोहक पर
टूट कर बिखर जाते हैं एक हीं ठोकर पर
सब कहते हैं की हौंसला रखो तुम दोस्त
पर कोई बताए हौंसला दिखता कैसा है
दिखने की छोड़ो मिलता कहां है, कोई बताए
आज हीं कुछ खरीद कर रख लूंगा अपने पास
कहते हैं की अंदर हीं रहता है खुद के
मानता हूं मैं ये बात मगर, कोई मुझे बताए
कब तक रखूं मैं हौंसला आखिर कब तक।
Tuesday, December 20, 2011
Friday, December 9, 2011
मेरा क्या कसूर .....
उम्र के 24वें पड़ाव पर पहुंच चुकी किसी भी लड़की को समाज में किस नज़र से देखा जाता है आप सभी लोग समझ सकते हैं। खास कर उनको जो की पढ़ाई करती हैं ये सोच कर की कुछ करुंगी अपने और अपने माता-पिता के लिए। मां-बाप भी कुछ भी करके उसकी हर इच्छा को पूरा करते हैं। आंखो में कुछ सपने औऱ दिल में कुछ कर गुज़रने की तमन्ना लिए जब वही लड़की सब कुछ काफी अच्छे तरीके से करती हूई अपने आप को पूरी तरह से तैयार करके कहीं पर जाती है इस उम्मीद के साथ की शायद उसकी किस्मत औऱ उसकी मेहनत कुछ रंग लाएगी औऱ उसको कहीं अच्छी जगह पर काम मिल जाएगा। जिससे वो अपने मां बाप के अधूरे सपनो को पूरा करेगी। और मां-बाप के सर पर के कर्ज़ के बोझ को उतार कर उनको कृतार्थ करेगी। यही कुछ सोच कर वो सबसे सब कुछ चुपचाप सुनती हुई औऱ सहती हुई बस दिन रात अपनी पढ़ाई पर ध्यान देती हुई कुछ कर गुज़रने की लालसा के साथ कड़ी मेहनत करती रहती है। मेहनत करे भी क्यों नहीं क्योंकि वो किसी बड़े खानदान से ताल्लुक नही रखती है ना उसके मां-बाप के पास अपार संपत्ती है और ना ही उसकी मां या पिताजी के पास सरकारी नौकरी है। बस उसकी इच्छा और मेहनत को देख कर उसके पिता जी ने बैंक लोन लेकर उसकी पढ़ाई जारी रखी। ये सोच कर की कहीं ना कहीं नौकरी करके वो उनको सारे कर्ज़ो से उद्धार कर देगी औऱ उनकी ढेर सारी अपूर्ण इच्छाओं को पूरा करेगी। पर अफसोस की उनका हर एक सपना धीरे-धीरे टूटकर चकनाचूर होता जा रहा है। कारण का कुछ पता नहीं है। की आखिर क्यों हो रहा है एसा। अब अगर घर की बात होती तो कोई चिंता नही थी की पैसे कैसे वापस करने हैं। बैंक भी कुछ भी सुनने को तैयार नही है। उनको भी बस अपने पैसे चाहिएं। अब अगर उसके घर के किसी भी सदस्य के पास सरकारी नौकरी होती तो ऋण वापस हो जाता, पर समस्या यह है की हम जिस देश मे रहते हैं वहां पर घर बनाना हो तो, या फिर गाड़ी खरीदनी हो तो उसके लिए ऋण का ब्याज काफी सस्ता है पर अगर किसी को पढने के लिए ऋण लेना हो तो उसको काफी ज्यादा ब्याज देना पड़ता है।
वही लड़की हाल हीं मे गई थी देश की एक नामी गिरामी कंपनी में साक्षात्कार के लिए। सब कुछ सही ढंग से हुआ यहां तक की उसके साथ-साथ गए लोगों का दो दौर में साक्षात्कार हुआ पर इसके साथ तीन दौर तक साक्षात्कार हुआ। जब वहां से वापस आई तो कहा गया की आप सारे पेपर भेंजें. उनके कहे अनुसार किया भी गया। फिर शुरु हुआ इंतजार का एक लंबा सिलसिला। काफी इंतजार करने के बाद भी जब कुछ सुगबुगाहट नही हुई तो फिर मानुष मन तो आखिर मानुष मन हीं हैं । इसने फोन किया तो कहा गया की आपका कार्य चल रहा है आपको जल्दी हीं सूचित किया जाएगा। फिर शुरु हुआ इंतजार का सिलसिला। फिर भी जब कुछ नही हुआ तो फिर से फोन किया। इस बार कहा गया की अभी कुछ नही है अगर कुछ होगा तो आपको फोन किया जाएगा। फिर अचानक से पता चलता है की जो सज्जन इनके साथ गए थे वो अपना डेरा-डंडा वहीं उसी शहर में जमा कर रखे हुए थे । बाद में पता चला की उनका चयन हो गया है और इनको नही चुना गया। अब आप ही बताएं की जब किसी को काम नही देना रहता है तो क्यों उसको इस हद तक उम्मीद बंधाई जाती है की अगर उम्मीद पूरी नही हो तो वो इंसान बिल्कुल टूट जाए।
आप ही ये तय करे की आखिर इसमें इसकी क्या गलती है। अगर किसी की रुची किसी क्षेत्र में अपना करियर बनाने की है और वो उस विषय से संबंधित पढ़ाई करता है या करती है और कड़ी मेहनत करने के बाद भी उसको दर-दर की ठोकरें खानी पड़े तो फिर ऐसी पढ़ाई करने से क्या फायदा। यहां पर सबसे बड़ी बात है की अगर आपके पीछे कोई बड़ा नाम है तो ठीक है और अगर आप किसी छोटे शहर से या किसी छोटे संस्थान से काफी अच्छे नंबरों से भी पास हैं तो आपको एक कुत्ता भी नही पूछेगा।
मैं बस इतना ही कहना चाहता हूं की अगर यही होना है तो फिर क्यों सरकार किसी भी शहर में किसी भी कोर्स को करने की आजादी दे देती है ।
वही लड़की हाल हीं मे गई थी देश की एक नामी गिरामी कंपनी में साक्षात्कार के लिए। सब कुछ सही ढंग से हुआ यहां तक की उसके साथ-साथ गए लोगों का दो दौर में साक्षात्कार हुआ पर इसके साथ तीन दौर तक साक्षात्कार हुआ। जब वहां से वापस आई तो कहा गया की आप सारे पेपर भेंजें. उनके कहे अनुसार किया भी गया। फिर शुरु हुआ इंतजार का एक लंबा सिलसिला। काफी इंतजार करने के बाद भी जब कुछ सुगबुगाहट नही हुई तो फिर मानुष मन तो आखिर मानुष मन हीं हैं । इसने फोन किया तो कहा गया की आपका कार्य चल रहा है आपको जल्दी हीं सूचित किया जाएगा। फिर शुरु हुआ इंतजार का सिलसिला। फिर भी जब कुछ नही हुआ तो फिर से फोन किया। इस बार कहा गया की अभी कुछ नही है अगर कुछ होगा तो आपको फोन किया जाएगा। फिर अचानक से पता चलता है की जो सज्जन इनके साथ गए थे वो अपना डेरा-डंडा वहीं उसी शहर में जमा कर रखे हुए थे । बाद में पता चला की उनका चयन हो गया है और इनको नही चुना गया। अब आप ही बताएं की जब किसी को काम नही देना रहता है तो क्यों उसको इस हद तक उम्मीद बंधाई जाती है की अगर उम्मीद पूरी नही हो तो वो इंसान बिल्कुल टूट जाए।
आप ही ये तय करे की आखिर इसमें इसकी क्या गलती है। अगर किसी की रुची किसी क्षेत्र में अपना करियर बनाने की है और वो उस विषय से संबंधित पढ़ाई करता है या करती है और कड़ी मेहनत करने के बाद भी उसको दर-दर की ठोकरें खानी पड़े तो फिर ऐसी पढ़ाई करने से क्या फायदा। यहां पर सबसे बड़ी बात है की अगर आपके पीछे कोई बड़ा नाम है तो ठीक है और अगर आप किसी छोटे शहर से या किसी छोटे संस्थान से काफी अच्छे नंबरों से भी पास हैं तो आपको एक कुत्ता भी नही पूछेगा।
मैं बस इतना ही कहना चाहता हूं की अगर यही होना है तो फिर क्यों सरकार किसी भी शहर में किसी भी कोर्स को करने की आजादी दे देती है ।
Sunday, October 23, 2011
यथार्थ
कहानी शुरु होती है गांधीजी के तीन बंदरों की बातचीत से। आज के बदले हुए परिवेश में जिनका नाम बदल गया है। पहला बंदर जिसका नाम समाज है, दूसरा बंदर जिसका नाम व्यवस्था है और तीसरा बंदर जिसका नाम प्रत्यक्ष है। तीनो अपनी-अपनी वर्तमान स्थिति के परिप्रेक्ष्य में आपस में बात-चीत करते है कि गांधीजी ने समाज की क्या कल्पना की थी और असल मे समाज की स्थिति क्या है। सबसे पहले समाज कहता है---
समज—कलपते हुए “सुनो-सुनो मैं समाज हूं, आज का कथित संभ्रांत समाज जो कि केवल उपर व्यवस्थित है परंतु अंदर से बिल्कुल कुव्यवस्था का शिकार है। सभी कहते है कि मैं समाज से पृथक नहीं हूं, सभ्य सामाजिक प्राणी हूं। परंतु केवल दिखावे के लिए।” तभी उसे एक गीत याद आता है और वह गाने लगता है “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान-कितना बदल गया इंसान..” तभी दूसरा बंदर जिसका नाम व्यवस्था है वह कहता है..
व्यवस्था---“मैं वर्तमान व्यवस्था हूं। सभी के लिए नितांत आवश्यक हूं, परंतु केवल नाम मात्र का । सभी कहते हैं कि व्यवस्था बद से बदतर हो गई है, पर क्या ये कहने में शर्म आती है कि इसे खराब करने में उसका भी “शेयर” है। कहीं ना कहीं से सभी इस कुव्यवस्था में शामिल है, परंतु स्वीकार ना करते हुए पूर्ण दोषी व्यवस्था को बना देते हैं। अरे कम से कम इतना तो सोचो कि व्यवस्था स्वंय नहीं सभी के योगदान से उचित स्तर पर रहती है और सही रहती है।”
( उन दोनो की बातचीत सुन रहे तीसरे बंदर “प्रत्यक्ष” से ना रहा गया )
प्रत्यक्ष—“सबसे खराब हालत तो मेरी है, हर कोई यही यही कहता है कि वर्तमान ही खराब है। कम से कम इतना तो सोचो की अगर भूत खराब ना होता तो वर्तमान भी खराब नही होता, परंतु हमारे देश की संस्कृति एंव सभ्यता जो कि इतनी अच्छी थी उसको तुम लोगो ने ही बेपर्दा कर दिया है, एंव इसकी छवि को दागदार कर दिया है।” उसे भी एक गीत याद आता है औऱ वह गाने लगता है—“इन्ही लोगो ने ले लीना दुपट्टा मेरा”......
( दुपट्टे से आशय सम्मान से है )
तीनो की बातचीत सुनकर तो ऐसा हीं लगता है कि सच में आज के समय में इन तीनो की हालत दयनिय हो गई है। कोई माने या ना माने समाज, व्यवस्था और प्रत्यक्ष की हालत के जिम्मेदार हम और आप हैं। क्योंकि हमलोग ही समाज हैं, हम ही व्यवस्था करते हैं और हम ही प्रत्यक्ष में वर्तमान हैं।
फिर समाज कहता है...
समाज—“सभी कहते हैं कि आदर्श समाज की व्यवस्था कि कल्पना करना भी बेमानी है। सब ये कहते हुए जरा भी नहीं शर्माते, वो शायद भूल गए हैं कि वर्तमान, व्यवस्था और मैं “समाज” तीनो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तुम सब पर हीं आश्रित हैं।” तुम जैसा आवरण दोगे हम उसी तरह नजर आएंगे।
व्यवस्था—“तुम ठीक कहते हो समाज, हम सभी की डोर मनुष्यों के हांथ मे है। सभी दोषारोपण करते हैं क्योंकि तुम और मैं और प्रत्यक्ष किसी एक के ना होकर एक दूसरे से संबंधित हैं, इसलिए कोई फिक्र नही करता, यही कहते हैं “मैं ठीक हूं और किसी से मेरा क्या लेना देना।”सभी स्वार्थी बन गए हैं और सभी का यही मोटो है कि अपना काम बनता भाड़ मे जाए जनता। ”
प्रत्यक्ष—“तुम लोग सही कह रहे हो आज का हर इंसान यही सोचता है कि मैं ठीक हं सभी की चिंता क्यों करूं, कितना स्वार्थी हो गया है आज का मनुष्य। समाज एक परिवार की तरह है, व्यवस्था उसकी रीढ़ है और मैं यानी प्रत्यक्ष उसका आवरण हूं। सब यह सोचते हैं कि मेरा परिवार, मेरा घर कैसे अच्छा रहेगा । कम से कम इतना तो सोचो कि अगर महात्मा गांधी और भगत सिंह और वो सभी स्वतंत्रता सेनानी भी ऐसा ही सोचते तो आज भी हम किसी गुलाम की जिंदगी जी रहे होते और तब क्या करते अपने परिवार के लिए। जिस तरह तुम अपने परिवार, उसकी व्यवस्था और उसके आवरण के लिए मरने-मारने को उतारू हो जाते हो। उसके सम्मान की रक्षा एवं उसकी स्वरूप को सही आकार देने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हो। उसी तरह समाज, व्यवस्था और मै यानि प्रत्य़क्ष भी वही चाहते हैं। कम से कम इतना तो सोचो कि हम भी एक परिवार हैं जिनको एक सूत्र मे पिरोकर रखना तुम सबकी जिम्मेदारी है। अब समय आ गया है कि तुम अपनी मानसिकता, उस संकरी मानसिकता से बाहर निकलो जिससे तुम केवल मैं, और मेरा सोचते हो, तुम्हे अगर सच मे सभ्य समाज, सुन्दर व्यवस्था एवं आदर्श प्रत्यक्ष चाहिए तो “हम, हमारे एंव हम सभी का” की परिकल्पना को साकार करो। तभी मैं और मेरे दोनो अक्स समाज और व्यवस्था भी सच में सफलतापूर्वक सक्षम होकर तुम्हारे समक्ष एक सफल समाज, सुन्दर व्यवस्था और मनोरम प्रत्यक्ष का निर्माण कर पाएंगे।”
इतना सुनकर समाज कहता है......
समाज—“चुप कर प्रत्यक्ष तुम्हारी ये बातें इनके आगे बेकार हैं। इनकी स्थिति उस भैंस की तरह है जिसके सामने बीन बजाने से कोई फर्क नही पड़ता है। अरे जब हमारे राष्ट्रपिता महात्मां गांधी का त्याग, उनका बलिदान इनकी बुद्धी पर जमी गर्द नही हटा पाया तो हम क्या कर लेंगे। आज हर व्यक्ति उस नोट की पूजा करता है जिस पर उन्ही महात्मा गांधी की तस्वीर है। पर क्या आज तक कभी किसी ने उस नोट पर के महापुरूष के सपनो के बारे में सोचा है जिनमें उन्होने भारत के जिस रूप की कल्पना की थी। यहां सब अपना हित देखते हैं। मैं ठीक हूं, मेरा परिवार ठीक है बस मुझे किसी और से क्या लेना देना। इन नासमझों को इतनी भी अक्ल नही है कि अगर इनके जैसी भावना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की होती तो अपने आप को सभ्य और संभ्रांत समझने वाले ये लोग किसी विदेशी के घर में उसके बाथरुम को साफ कर रहे होते। अरे जब इन्हें उनका बलिदान, देश के लिए मर मिटने का जज़्बा तक नहीं बदल पाया तो तू या मैं कैसे बदल सकते हैं।”
दोनो की बातचीत को व्यवस्था सुन रहा था। उसने कहा-----
व्यवस्था—“क्या करें भाई हम लोग तो इनके हाथों की कठपुतलियां बनकर रह गये हैं। जैसे चाहते हैं नचाते हैं, एवं गलती स्वयं करते हैं और दोष हमको देते हैं। जब देश का संविधान बना तो उसमे व्यवस्था यानि मेरा स्थान बहुत उपर था पर आज मेरी हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो गई है, ना घर का रहा ना घाट का। मैं पूछता हूं कि जब तुम हमारा हित नही सोच सकते तो हमारे बारे में गलत व्याख्या करने का हक तुम्हे किसने दिया है ? अपने हित और अहित के बारे में सभी सोचते हैं पर क्या तुमने कभी किसी और के हित के बारे में सोचा ? नहीं, क्योंकि तुम बस यही सोचते हो कि इस काम से मेरा हित होता है तो वह सबसे अच्छा है, भले हीं उससे कई अन्य लोगों का अहित हो। शर्म करो ऐ बेशर्मों अब तो शर्म करो। गांधीजी की आत्मा भी दुखी और कुंठित हो रही होगी कि आज उस आर्यावर्त की को क्या हो गया है जिसमे कभी उनकी कर्मभूमी थी।“
प्रत्यक्ष—“अरे छोड़ो यार उन देशभक्त महापुरूषों को क्यों बीच में घसीटते हो। आज के समय में उनके उपदेशों का सही स्थान जानते हो कहां है ? सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर, रेलवे स्टेशनो पर एंव उस समय के जीवित साहित्यकारों की रचनाओं में, जहां सरकारी दफ्तर में उनकी तस्वीर के नीचे भ्रष्टाचार की दुकान खुली हुई है, रेलवे स्टेशनो पर लघु शंका उतारी जाती है, एवं साहित्यकारों के साहित्य की धज्जियां उड़ाकर उनमें चना, मूंगफली खाकर कचरे में फेंक दिया जाता है। और तो और कभी अगर भूले भटके उनकी याद आती है तो केवल उनके वक्ताओं, उनके रचनाकारों की जन्मतिथी एवं पुण्यतिथी पर जब बड़े-बड़े नेता एंव अपने आप को तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता कहलाने वाले महानुभावों द्वारा उनके विचारों का रट्टा लगाकर व्याख्या कर दी जाती है। इनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण किया जाता है, साल भर तो उनका आदर सत्कार पक्षी करते हीं हैं। अरे अगर सच मे सम्मान करना है तो उनकी प्रतिमाएं अपने दिल मे बनाओ, उनके विचारों को अपने जीवन में आत्मसात करो। ”
समाज—“बस कर यार किससे बात कर रहा है, तुझे क्या लगता है आज के ये स्वार्थी और केवल अपना हित चाहने वाले व्यक्ति विशेष और उनके इशारे पर नाचने वाले तथाकथित सभ्य समाज के अति सामाजिक प्राणी तेरे गला फाड़ने से सम्भल जाएंगे ? नहीं अरे जब 1857 से 1947 तक कही गई बात का इनपर असर नहीं हुआ तो अब क्या होगा। सब मुझको कहते हैं कि मैं बुरा हूं, पर क्या आज तक किसी ने अपने आप को कहा की मै बुरा हूं, मुझमे बुराई है ? नहीं, सभी अच्छे हैं मैं बुरा हूं। शर्म करो मुझे बुरा कहते हो सबसे घटिया तो तुम हो, सोचो कि जिन्हे तुम चुनकर मेरा निर्माण, मेरी व्यवस्था एवं मेरा प्रत्यक्ष बनाने का जिम्मा देते हो वही तुम पर राज करते हैं तानाशाह की तरह। कभी तो शर्म करो जिन्हें हमारा निर्माण करने के लिए चुनते हो वो अपना निर्माण करने में लग जाते हैं। इस अपना और हमारा के द्वंद में उलझकर हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो गई है ।”
व्यवस्था—“मैं कहता हूं व्यर्थ का रोना-धोना छोड़ो मुझे दोष देने के बजाय अपना दोष ढूंढ़ो और उसको दुर करो, व्यवस्था यानी की मैं खुद-ब-खुद व्यवस्थित हो जाउंगा। सभी की तरह मत सोचो की मैं नहीं, वो क्यों नहीं। सोचो कि शुरूआत तो किसी ना किसी को करनी हीं है तो मैं क्यों नहीं। सदा यही सोचो की जो रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है...
“मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है”
तो जागो और परिवर्तन की लहर उठा दो, क्योंकि बूंद-बूंद करके ही सागर बनता है, बूंदे देखने में छोटी होती हैं पर जब जमीन पर गिरती हैं तो उतनी मिट्टी को अपने में समेट कर बांध लेती हैं। उसी बूंद को प्रेरणा स्त्रोत मानो।“
प्रत्यक्ष—“जिस प्रकार व्यवस्था ने कहा ठीक उसी तरह मैं भी कहना चाहूंगा कि भविष्य को अगर, अच्छा, सुन्दर और सुखद बनाना है तो अपने भूत से प्रेरणा लो, सीखो की तुम्हे क्या करना था और तुम क्या कर रहे हो । मै ये नही कहता की गलतियां किसी से नही होती, गलतियां सब से होती हैं। अगर गलतियां नहीं करोगे तो सीखोगे कैसे । किसी ने ठीक ही कहा है---
“ शाम सूरज को ढलना सिखा देती है शमा परवाने को जलना सिखा देती है
गिरने वाले को होती है तकलीफ मगर ठोकर इंसान को चलना सिखा देती है ।“
इसलिए अपने द्वारा की गई गलतियों से सबक लेकर वर्तमान में अपने आप को बदल कर, वर्तमान में अच्छा कार्य करके अपना भविष्य उज्जवल और सार्थक बनाओ।
समाज—“मेरा अस्तित्व तो मनुष्यों के हांथो में है, किसी भी समाज का निर्माण एवं उसकी सरंचना उसके निर्माता यानि की मनुष्यों पर निर्भर करती है। इसलिए सबसे पहले अपना निर्माण करो, अपने आप को बदलो एवं अपना चरित्र निर्माण करो, क्योंकि किसी भी समाज का आचरण और उसकी पहचान उसके अंतर्गत आने वाले मनुष्यों को आचरण को आधार पर हीं तय की जाती है। जैसे मनुष्य होंगे वैसा हीं समाज होगा ।” या यूं कहे कि जैसी वहां के इंसानो की सोच होगी वैसी हीं वहां के समाज की तस्वीर होगी। “इसलिए अपने आप को बदलो अपनी सोच को बदलो, अपने आचर को बदलो, अपने विचारों को बदलो समाज अपने आप बदल जाएगा।” इसके लिए किसी ने ठीक कहा है—
“सोच को बदलो सितारे बदल जाएंगे, नज़र को बदलो नज़ारे बदल जाएंगे
कश्तियां बदलने की ज़रूरत नहीं, सोच को बदलो किनारे बदल जाएंगे ।
मेरे द्वारा लिखित यह लेख यूं तो कुछ कटाक्ष जैसा प्रतीत होता है, परंतु यह कटाक्ष नहीं यथार्थ है, हमारे समाज, व्यवस्था एंव प्रत्य़क्ष या वर्तमान की । यूं तो सब कुछ जो हो रहा है उसे पूर्ण रुप से लिखने के लिए विस्तृत रुप से व्याख्या करनी होगी। इसके आगे भी मै सतत प्रयास करूंगा कि सामाजिक स्तर पर फैली समस्याओं को निरुपित करुं। यहां पर इस लेख के माध्यम से मैने संदेश देने की चेष्टा की है कि किसी भी समाज एंव उसमें उसके निर्माता तत्वों को किस प्रकार से व्यवस्थित करके सफल समाज की स्थापना करें।
सुधीर कुमार सिंह.
समज—कलपते हुए “सुनो-सुनो मैं समाज हूं, आज का कथित संभ्रांत समाज जो कि केवल उपर व्यवस्थित है परंतु अंदर से बिल्कुल कुव्यवस्था का शिकार है। सभी कहते है कि मैं समाज से पृथक नहीं हूं, सभ्य सामाजिक प्राणी हूं। परंतु केवल दिखावे के लिए।” तभी उसे एक गीत याद आता है और वह गाने लगता है “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान-कितना बदल गया इंसान..” तभी दूसरा बंदर जिसका नाम व्यवस्था है वह कहता है..
व्यवस्था---“मैं वर्तमान व्यवस्था हूं। सभी के लिए नितांत आवश्यक हूं, परंतु केवल नाम मात्र का । सभी कहते हैं कि व्यवस्था बद से बदतर हो गई है, पर क्या ये कहने में शर्म आती है कि इसे खराब करने में उसका भी “शेयर” है। कहीं ना कहीं से सभी इस कुव्यवस्था में शामिल है, परंतु स्वीकार ना करते हुए पूर्ण दोषी व्यवस्था को बना देते हैं। अरे कम से कम इतना तो सोचो कि व्यवस्था स्वंय नहीं सभी के योगदान से उचित स्तर पर रहती है और सही रहती है।”
( उन दोनो की बातचीत सुन रहे तीसरे बंदर “प्रत्यक्ष” से ना रहा गया )
प्रत्यक्ष—“सबसे खराब हालत तो मेरी है, हर कोई यही यही कहता है कि वर्तमान ही खराब है। कम से कम इतना तो सोचो की अगर भूत खराब ना होता तो वर्तमान भी खराब नही होता, परंतु हमारे देश की संस्कृति एंव सभ्यता जो कि इतनी अच्छी थी उसको तुम लोगो ने ही बेपर्दा कर दिया है, एंव इसकी छवि को दागदार कर दिया है।” उसे भी एक गीत याद आता है औऱ वह गाने लगता है—“इन्ही लोगो ने ले लीना दुपट्टा मेरा”......
( दुपट्टे से आशय सम्मान से है )
तीनो की बातचीत सुनकर तो ऐसा हीं लगता है कि सच में आज के समय में इन तीनो की हालत दयनिय हो गई है। कोई माने या ना माने समाज, व्यवस्था और प्रत्यक्ष की हालत के जिम्मेदार हम और आप हैं। क्योंकि हमलोग ही समाज हैं, हम ही व्यवस्था करते हैं और हम ही प्रत्यक्ष में वर्तमान हैं।
फिर समाज कहता है...
समाज—“सभी कहते हैं कि आदर्श समाज की व्यवस्था कि कल्पना करना भी बेमानी है। सब ये कहते हुए जरा भी नहीं शर्माते, वो शायद भूल गए हैं कि वर्तमान, व्यवस्था और मैं “समाज” तीनो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तुम सब पर हीं आश्रित हैं।” तुम जैसा आवरण दोगे हम उसी तरह नजर आएंगे।
व्यवस्था—“तुम ठीक कहते हो समाज, हम सभी की डोर मनुष्यों के हांथ मे है। सभी दोषारोपण करते हैं क्योंकि तुम और मैं और प्रत्यक्ष किसी एक के ना होकर एक दूसरे से संबंधित हैं, इसलिए कोई फिक्र नही करता, यही कहते हैं “मैं ठीक हूं और किसी से मेरा क्या लेना देना।”सभी स्वार्थी बन गए हैं और सभी का यही मोटो है कि अपना काम बनता भाड़ मे जाए जनता। ”
प्रत्यक्ष—“तुम लोग सही कह रहे हो आज का हर इंसान यही सोचता है कि मैं ठीक हं सभी की चिंता क्यों करूं, कितना स्वार्थी हो गया है आज का मनुष्य। समाज एक परिवार की तरह है, व्यवस्था उसकी रीढ़ है और मैं यानी प्रत्यक्ष उसका आवरण हूं। सब यह सोचते हैं कि मेरा परिवार, मेरा घर कैसे अच्छा रहेगा । कम से कम इतना तो सोचो कि अगर महात्मा गांधी और भगत सिंह और वो सभी स्वतंत्रता सेनानी भी ऐसा ही सोचते तो आज भी हम किसी गुलाम की जिंदगी जी रहे होते और तब क्या करते अपने परिवार के लिए। जिस तरह तुम अपने परिवार, उसकी व्यवस्था और उसके आवरण के लिए मरने-मारने को उतारू हो जाते हो। उसके सम्मान की रक्षा एवं उसकी स्वरूप को सही आकार देने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हो। उसी तरह समाज, व्यवस्था और मै यानि प्रत्य़क्ष भी वही चाहते हैं। कम से कम इतना तो सोचो कि हम भी एक परिवार हैं जिनको एक सूत्र मे पिरोकर रखना तुम सबकी जिम्मेदारी है। अब समय आ गया है कि तुम अपनी मानसिकता, उस संकरी मानसिकता से बाहर निकलो जिससे तुम केवल मैं, और मेरा सोचते हो, तुम्हे अगर सच मे सभ्य समाज, सुन्दर व्यवस्था एवं आदर्श प्रत्यक्ष चाहिए तो “हम, हमारे एंव हम सभी का” की परिकल्पना को साकार करो। तभी मैं और मेरे दोनो अक्स समाज और व्यवस्था भी सच में सफलतापूर्वक सक्षम होकर तुम्हारे समक्ष एक सफल समाज, सुन्दर व्यवस्था और मनोरम प्रत्यक्ष का निर्माण कर पाएंगे।”
इतना सुनकर समाज कहता है......
समाज—“चुप कर प्रत्यक्ष तुम्हारी ये बातें इनके आगे बेकार हैं। इनकी स्थिति उस भैंस की तरह है जिसके सामने बीन बजाने से कोई फर्क नही पड़ता है। अरे जब हमारे राष्ट्रपिता महात्मां गांधी का त्याग, उनका बलिदान इनकी बुद्धी पर जमी गर्द नही हटा पाया तो हम क्या कर लेंगे। आज हर व्यक्ति उस नोट की पूजा करता है जिस पर उन्ही महात्मा गांधी की तस्वीर है। पर क्या आज तक कभी किसी ने उस नोट पर के महापुरूष के सपनो के बारे में सोचा है जिनमें उन्होने भारत के जिस रूप की कल्पना की थी। यहां सब अपना हित देखते हैं। मैं ठीक हूं, मेरा परिवार ठीक है बस मुझे किसी और से क्या लेना देना। इन नासमझों को इतनी भी अक्ल नही है कि अगर इनके जैसी भावना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की होती तो अपने आप को सभ्य और संभ्रांत समझने वाले ये लोग किसी विदेशी के घर में उसके बाथरुम को साफ कर रहे होते। अरे जब इन्हें उनका बलिदान, देश के लिए मर मिटने का जज़्बा तक नहीं बदल पाया तो तू या मैं कैसे बदल सकते हैं।”
दोनो की बातचीत को व्यवस्था सुन रहा था। उसने कहा-----
व्यवस्था—“क्या करें भाई हम लोग तो इनके हाथों की कठपुतलियां बनकर रह गये हैं। जैसे चाहते हैं नचाते हैं, एवं गलती स्वयं करते हैं और दोष हमको देते हैं। जब देश का संविधान बना तो उसमे व्यवस्था यानि मेरा स्थान बहुत उपर था पर आज मेरी हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो गई है, ना घर का रहा ना घाट का। मैं पूछता हूं कि जब तुम हमारा हित नही सोच सकते तो हमारे बारे में गलत व्याख्या करने का हक तुम्हे किसने दिया है ? अपने हित और अहित के बारे में सभी सोचते हैं पर क्या तुमने कभी किसी और के हित के बारे में सोचा ? नहीं, क्योंकि तुम बस यही सोचते हो कि इस काम से मेरा हित होता है तो वह सबसे अच्छा है, भले हीं उससे कई अन्य लोगों का अहित हो। शर्म करो ऐ बेशर्मों अब तो शर्म करो। गांधीजी की आत्मा भी दुखी और कुंठित हो रही होगी कि आज उस आर्यावर्त की को क्या हो गया है जिसमे कभी उनकी कर्मभूमी थी।“
प्रत्यक्ष—“अरे छोड़ो यार उन देशभक्त महापुरूषों को क्यों बीच में घसीटते हो। आज के समय में उनके उपदेशों का सही स्थान जानते हो कहां है ? सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर, रेलवे स्टेशनो पर एंव उस समय के जीवित साहित्यकारों की रचनाओं में, जहां सरकारी दफ्तर में उनकी तस्वीर के नीचे भ्रष्टाचार की दुकान खुली हुई है, रेलवे स्टेशनो पर लघु शंका उतारी जाती है, एवं साहित्यकारों के साहित्य की धज्जियां उड़ाकर उनमें चना, मूंगफली खाकर कचरे में फेंक दिया जाता है। और तो और कभी अगर भूले भटके उनकी याद आती है तो केवल उनके वक्ताओं, उनके रचनाकारों की जन्मतिथी एवं पुण्यतिथी पर जब बड़े-बड़े नेता एंव अपने आप को तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता कहलाने वाले महानुभावों द्वारा उनके विचारों का रट्टा लगाकर व्याख्या कर दी जाती है। इनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण किया जाता है, साल भर तो उनका आदर सत्कार पक्षी करते हीं हैं। अरे अगर सच मे सम्मान करना है तो उनकी प्रतिमाएं अपने दिल मे बनाओ, उनके विचारों को अपने जीवन में आत्मसात करो। ”
समाज—“बस कर यार किससे बात कर रहा है, तुझे क्या लगता है आज के ये स्वार्थी और केवल अपना हित चाहने वाले व्यक्ति विशेष और उनके इशारे पर नाचने वाले तथाकथित सभ्य समाज के अति सामाजिक प्राणी तेरे गला फाड़ने से सम्भल जाएंगे ? नहीं अरे जब 1857 से 1947 तक कही गई बात का इनपर असर नहीं हुआ तो अब क्या होगा। सब मुझको कहते हैं कि मैं बुरा हूं, पर क्या आज तक किसी ने अपने आप को कहा की मै बुरा हूं, मुझमे बुराई है ? नहीं, सभी अच्छे हैं मैं बुरा हूं। शर्म करो मुझे बुरा कहते हो सबसे घटिया तो तुम हो, सोचो कि जिन्हे तुम चुनकर मेरा निर्माण, मेरी व्यवस्था एवं मेरा प्रत्यक्ष बनाने का जिम्मा देते हो वही तुम पर राज करते हैं तानाशाह की तरह। कभी तो शर्म करो जिन्हें हमारा निर्माण करने के लिए चुनते हो वो अपना निर्माण करने में लग जाते हैं। इस अपना और हमारा के द्वंद में उलझकर हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो गई है ।”
व्यवस्था—“मैं कहता हूं व्यर्थ का रोना-धोना छोड़ो मुझे दोष देने के बजाय अपना दोष ढूंढ़ो और उसको दुर करो, व्यवस्था यानी की मैं खुद-ब-खुद व्यवस्थित हो जाउंगा। सभी की तरह मत सोचो की मैं नहीं, वो क्यों नहीं। सोचो कि शुरूआत तो किसी ना किसी को करनी हीं है तो मैं क्यों नहीं। सदा यही सोचो की जो रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है...
“मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है”
तो जागो और परिवर्तन की लहर उठा दो, क्योंकि बूंद-बूंद करके ही सागर बनता है, बूंदे देखने में छोटी होती हैं पर जब जमीन पर गिरती हैं तो उतनी मिट्टी को अपने में समेट कर बांध लेती हैं। उसी बूंद को प्रेरणा स्त्रोत मानो।“
प्रत्यक्ष—“जिस प्रकार व्यवस्था ने कहा ठीक उसी तरह मैं भी कहना चाहूंगा कि भविष्य को अगर, अच्छा, सुन्दर और सुखद बनाना है तो अपने भूत से प्रेरणा लो, सीखो की तुम्हे क्या करना था और तुम क्या कर रहे हो । मै ये नही कहता की गलतियां किसी से नही होती, गलतियां सब से होती हैं। अगर गलतियां नहीं करोगे तो सीखोगे कैसे । किसी ने ठीक ही कहा है---
“ शाम सूरज को ढलना सिखा देती है शमा परवाने को जलना सिखा देती है
गिरने वाले को होती है तकलीफ मगर ठोकर इंसान को चलना सिखा देती है ।“
इसलिए अपने द्वारा की गई गलतियों से सबक लेकर वर्तमान में अपने आप को बदल कर, वर्तमान में अच्छा कार्य करके अपना भविष्य उज्जवल और सार्थक बनाओ।
समाज—“मेरा अस्तित्व तो मनुष्यों के हांथो में है, किसी भी समाज का निर्माण एवं उसकी सरंचना उसके निर्माता यानि की मनुष्यों पर निर्भर करती है। इसलिए सबसे पहले अपना निर्माण करो, अपने आप को बदलो एवं अपना चरित्र निर्माण करो, क्योंकि किसी भी समाज का आचरण और उसकी पहचान उसके अंतर्गत आने वाले मनुष्यों को आचरण को आधार पर हीं तय की जाती है। जैसे मनुष्य होंगे वैसा हीं समाज होगा ।” या यूं कहे कि जैसी वहां के इंसानो की सोच होगी वैसी हीं वहां के समाज की तस्वीर होगी। “इसलिए अपने आप को बदलो अपनी सोच को बदलो, अपने आचर को बदलो, अपने विचारों को बदलो समाज अपने आप बदल जाएगा।” इसके लिए किसी ने ठीक कहा है—
“सोच को बदलो सितारे बदल जाएंगे, नज़र को बदलो नज़ारे बदल जाएंगे
कश्तियां बदलने की ज़रूरत नहीं, सोच को बदलो किनारे बदल जाएंगे ।
मेरे द्वारा लिखित यह लेख यूं तो कुछ कटाक्ष जैसा प्रतीत होता है, परंतु यह कटाक्ष नहीं यथार्थ है, हमारे समाज, व्यवस्था एंव प्रत्य़क्ष या वर्तमान की । यूं तो सब कुछ जो हो रहा है उसे पूर्ण रुप से लिखने के लिए विस्तृत रुप से व्याख्या करनी होगी। इसके आगे भी मै सतत प्रयास करूंगा कि सामाजिक स्तर पर फैली समस्याओं को निरुपित करुं। यहां पर इस लेख के माध्यम से मैने संदेश देने की चेष्टा की है कि किसी भी समाज एंव उसमें उसके निर्माता तत्वों को किस प्रकार से व्यवस्थित करके सफल समाज की स्थापना करें।
सुधीर कुमार सिंह.
Monday, August 1, 2011
"REFERENCE" है क्या ???????
हर जगह resume देकर आ गया, लेकिन कहीं से कोइ सुगबुगाहट नहीं है। resume में साफ-साफ लिखा है कि मैं न्यूज़ रूम साफ्टवेयर पर काम करना अच्छी तरह से जानता हूँ। स्क्रिप्टिंग भी काफी अच्छी कर लेता हूँ, साथ-साथ हर वो काम करना जानता हूँ जो कि एक न्यूज़ चैनल की प्रोडक्शन टीम में होता है। फिर भी किसी अंधे को दिखता क्यों नहीं कि जिसने भी अपना resume दिया है उसमें लिखा क्या है। किसी के अन्दर ईमानदारी नाम की कोई चीज़ नहीं है, सब जानते है कि किस को कब और कैसे काम पर रखना है। मेरे पास लगभग हर चीज़ है पर फिर भी किसी जगह से कॉल क्यों नहीं आती है??? कारण है कि मेरे पास मीडिया में काम करने के लिए सबसे जरूरी क्वालिटी सिफारिश नही है।
कई ऐसे लोग हैं जिनको ढंग से हिंदी टाइपिंग भी नहीं आती है और वह शहर के नामी गिरामी चैनलों में काफी अच्छी जगहों पर काम कर रहे हैं। उनमें से कुछ नाम तो ऐसे है जिन्हें कुछ भी नहीं आता और जब भी मुझसे मिलते है तो कुछ ना कुछ पूछते ही हैं। अब ऐसे लोग कैसे बहाल हो गऐ किसी के पास है इस बात का जवाब ?? जवाब हर वो इंसान जानता है जो इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ है।
अगर मेरे पास किसी की सिफारिश नहीं है, किसी की पैरवी नहीं है तो इसमे मेरा क्या दोष है?? मैं जानता हूं कि मै किस काम को ज्यादा अच्छे से कर सकता हूँ। मेरा कहने का सिर्फ इतना ही मकसद है कि जो अपना resume कही जमा करते हैं तो उनलोगों को चाहिऐ कि जो उसने लिखा है वो सही है या नहीं उसकी जाँच तो कर लें पर कोई ये ज़हमत उठाना नहीं चाहता क्योंकि उनके resume पर किसी का reference नहीं लिखा होता है। इस बात का उदाहरण है पटना का एक बहुत बढ़ा अख़बार जो कि अपने आप को सबसे बड़ा अख़बार बताता है में परीक्षा आयोजित कि गई थी। मैं और मेरे कुछ मित्र परीक्षा देने के लिए बड़े मन से तैयारी कर के गऐ थे। परीक्षा शुरू हुई। अचानक हमने सुना कि जो लोग वहाँ बैठे थे नीरीक्षण करने के लिए उनमें वो महोदया भी बैठी थी जो कि वहाँ की HR थी और जिनकी देखरेख में चयन की सारी प्रक्रिया सम्पन्न होनी थी। ख़ुद वही बोल रही थी की क्या बेकार में परीक्षा का आयोजन किया है जबकि पहले से ही सारी सीटें बुक हो चुकी हैं। इस बात से क्या पता चलता है यही कि जहाँ भी जाओ वहाँ प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं पर परोक्ष रूप से NO VACCANCY की तख्ती लगी रहती है। अरे यार जब किसी बाहर के आदमी को रखना हीं नहीं है तो साफ-साफ क्यों नहीं एक तख्ती पर लिख कर टाँग देते की यहाँ केवल सिफारिश वालों को और जिनके जान-पहचान वाले हैं उनको काम मिलेगा और किसी को नहीं। जिस तरह अंग्रेजों ने किया था “INDIANS & DOGS ARE NOT ALLOWED” क्यों किसी की उम्मीदों से खिलवाड़ करते हो। मेरी बस इतनी शिकायत है कि अगर आप के यहाँ कोइ अपना RESUME जमा करता है तो कम से कम उसको बुलाकर ये तो जाँच कर लो कि वो जो दावे कर रहा है उसमें कितनी सच्चाई है। और उसके बाद लगे कि किसी काम का नहीं है तो उसको बाहर का रास्ता दिखा दो यार। पर कम से कम कॉल तो करो।
कई ऐसे लोग हैं जिनको ढंग से हिंदी टाइपिंग भी नहीं आती है और वह शहर के नामी गिरामी चैनलों में काफी अच्छी जगहों पर काम कर रहे हैं। उनमें से कुछ नाम तो ऐसे है जिन्हें कुछ भी नहीं आता और जब भी मुझसे मिलते है तो कुछ ना कुछ पूछते ही हैं। अब ऐसे लोग कैसे बहाल हो गऐ किसी के पास है इस बात का जवाब ?? जवाब हर वो इंसान जानता है जो इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ है।
अगर मेरे पास किसी की सिफारिश नहीं है, किसी की पैरवी नहीं है तो इसमे मेरा क्या दोष है?? मैं जानता हूं कि मै किस काम को ज्यादा अच्छे से कर सकता हूँ। मेरा कहने का सिर्फ इतना ही मकसद है कि जो अपना resume कही जमा करते हैं तो उनलोगों को चाहिऐ कि जो उसने लिखा है वो सही है या नहीं उसकी जाँच तो कर लें पर कोई ये ज़हमत उठाना नहीं चाहता क्योंकि उनके resume पर किसी का reference नहीं लिखा होता है। इस बात का उदाहरण है पटना का एक बहुत बढ़ा अख़बार जो कि अपने आप को सबसे बड़ा अख़बार बताता है में परीक्षा आयोजित कि गई थी। मैं और मेरे कुछ मित्र परीक्षा देने के लिए बड़े मन से तैयारी कर के गऐ थे। परीक्षा शुरू हुई। अचानक हमने सुना कि जो लोग वहाँ बैठे थे नीरीक्षण करने के लिए उनमें वो महोदया भी बैठी थी जो कि वहाँ की HR थी और जिनकी देखरेख में चयन की सारी प्रक्रिया सम्पन्न होनी थी। ख़ुद वही बोल रही थी की क्या बेकार में परीक्षा का आयोजन किया है जबकि पहले से ही सारी सीटें बुक हो चुकी हैं। इस बात से क्या पता चलता है यही कि जहाँ भी जाओ वहाँ प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं पर परोक्ष रूप से NO VACCANCY की तख्ती लगी रहती है। अरे यार जब किसी बाहर के आदमी को रखना हीं नहीं है तो साफ-साफ क्यों नहीं एक तख्ती पर लिख कर टाँग देते की यहाँ केवल सिफारिश वालों को और जिनके जान-पहचान वाले हैं उनको काम मिलेगा और किसी को नहीं। जिस तरह अंग्रेजों ने किया था “INDIANS & DOGS ARE NOT ALLOWED” क्यों किसी की उम्मीदों से खिलवाड़ करते हो। मेरी बस इतनी शिकायत है कि अगर आप के यहाँ कोइ अपना RESUME जमा करता है तो कम से कम उसको बुलाकर ये तो जाँच कर लो कि वो जो दावे कर रहा है उसमें कितनी सच्चाई है। और उसके बाद लगे कि किसी काम का नहीं है तो उसको बाहर का रास्ता दिखा दो यार। पर कम से कम कॉल तो करो।
Friday, July 8, 2011
लोकपाल पर बवाल
एक तरफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कमर कस कर खड़े हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए जब तक लोकपाल का ठीक वैसा ही मसौदा केन्द्र सरकार और तमाम राजनीतिक पार्टियां नहीं मान लेती जैसा कि अन्ना और बाबा रामदेव चाहते हैं। तब तक उनका आंदोलन जारी रहेगा। वही कांग्रेस के ढुलमुल रवैये से नहीं लगता की वह इतनी आसानी से अन्ना और रामदेव की बात मान लेगी। इस बात कि पुष्टि करने के लिए कांग्रेस का यह बयान ही काफी है कि सर्वदलीय बैठक में कोइ भी नतीजा निकलकर नहीं आया और सभी पार्टियों से दोबारा बातचीत की जाएगी। हालाकि केवल कांग्रेस को ही अकेले इस बात से एतराज नहीं है कि प्रधानमंत्री को भी इस लोकपाल के दायरे में लाया जाए। यहा सबसे अहम सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सच में लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? क्या गारंटी है कि लोकपाल जो भी फैसला करेगा वह पक्षपात पूर्ण नहीं होगा ?
यहाँ सबसे बड़ा और अहम सवाल यह खड़ा होता है कि क्या जिस भारत की जनता का हवाला देकर सभी लोकपाल और जन लोकपाल की आवाज़ को इतना उपर उठा रहे हैं, उस जनता का इस मुद्दे पर क्या सोचना है। क्योंकि आज भी भारत की 60 प्रतिशत जनता या तो गरीबी रेखा के नीचे है या फिर उस लकीर के समानांतर है जो भारत की सरकार ने खींच रखी है। अब सवाल यह है कि क्या लोकपाल सच में उस लकीर के समानांतर चल रही जनता के हित में है या केवल एक दिखावा मात्र है, अगर दिखावा है तो और कितना छलेंगे आप इस जनता को जिसे यह हक तो दे दिया गया है कि वह यह तय करे कि किसे मुखिया चुना जाए पर सच में अगर जरूरत है तो उन्हे इस बात का अधिकार देने की जिस तरह से वह किसी को चुनते हैं ठीक उसी तरह उनको हक है कि वह जब चाहे उनको हटा सके जिनका चुनाव उन्होने किया था यह सोचकर की वह उनके हिमायती हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी का रवैया देख कर नही लगता कि वह इस लोकपाल के समर्थन में कुछ कहना उचित समझते हैं। सच मे अगर देखा जाए तो किसी भी पार्टी ने अभी तक इस विधेयक के समर्थन में कुछ नही कहा है। यहाँ तक कि केन्द्र कि विपक्षी पार्टी भाजपा भी इस से किनारा करती नजर आ रही है। याद रहे कि यह वही भारतीय जनता पार्टी है जो कि केन्द्र सरकार को किसी भी मुद्दे पर घेरने का मौका नही छोड़ती, तो आखिर क्या बात है जो इस मुद्दे पर वह सिर्फ यही बयान दे रही है कि ना वह इसके पक्ष में है और ना ही विपक्ष में। आखिर क्या बात है जिसके कारण भाजपा भी खुलकर अपना बयान नही दे रही है। इसका सबसे बड़ा और अहम कारण है कि सिविल सोसायटी और लोकपाल की ड्राफ्टिंग कमेटी ने इस विधेयक का जो मसौदा तय किया है उसको लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों में भी संशय की स्थिति बनी हुइ है। सिविल सोसायटी का कहना है कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री के साथ-साथ न्याय पालिका को भी लाया जाए। सभी पार्टियों को लोकपाल के इस मसौदे से इस बात की चिंता सता रही है कि अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो कही ना कही से आने वाले समय में उनको भी इसका शिकार ना बनना पड़ जाए। यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इस बात की क्या गारंटी है कि लोकपाल को इतनी अधिक शक्ति और अधिकार देने के बाद इसका गलत उपयोग नही होगा। चिंता का दूसरा विषय है कि क्या लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और केन्द्रिय जाँच एजेंसियों के आ जाने के बाद निष्पक्षता बनी रहेगी?? इस बात की गारंटी कौन लेगा।
केवल लोकपाल विधेयक पारित कर देने से देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? जहाँ तक आम जनता का प्रश्न है तो यहाँ भी लोग इसकी निष्पक्षता को लेकर संशय में हैं। भारत जैसे देश में जहाँ एक चपरासी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी तक भ्रष्ट लोगो कि फेहरिस्त में शामिल हैं, क्या गारंटी है कि लोकपाल जिसे इतनी शक्ति और अधिकार मिल जाएंगे वह अपने आप को पूरी तरह से निष्पक्ष रख पाएगा। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि अपार शक्ति और अपार धन जिसे भी मिलता है वह कभी ना कभी उसके दुरूपयोग के बारे में सोचता जरूर है। यह बात और है कि वह इसका गलत उपयोग करेगा या नही यह उसकी इच्छा शक्ति और कार्यशैली पर निर्भर करता है। बहरहाल वर्तमान समय में जिस तरह का परिदृष्य है उसको देख कर यह नही लगता की लोकपाल अपने मौजूदा स्वरूप में पारित हो पाएगा।
यहाँ सबसे बड़ा और अहम सवाल यह खड़ा होता है कि क्या जिस भारत की जनता का हवाला देकर सभी लोकपाल और जन लोकपाल की आवाज़ को इतना उपर उठा रहे हैं, उस जनता का इस मुद्दे पर क्या सोचना है। क्योंकि आज भी भारत की 60 प्रतिशत जनता या तो गरीबी रेखा के नीचे है या फिर उस लकीर के समानांतर है जो भारत की सरकार ने खींच रखी है। अब सवाल यह है कि क्या लोकपाल सच में उस लकीर के समानांतर चल रही जनता के हित में है या केवल एक दिखावा मात्र है, अगर दिखावा है तो और कितना छलेंगे आप इस जनता को जिसे यह हक तो दे दिया गया है कि वह यह तय करे कि किसे मुखिया चुना जाए पर सच में अगर जरूरत है तो उन्हे इस बात का अधिकार देने की जिस तरह से वह किसी को चुनते हैं ठीक उसी तरह उनको हक है कि वह जब चाहे उनको हटा सके जिनका चुनाव उन्होने किया था यह सोचकर की वह उनके हिमायती हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी का रवैया देख कर नही लगता कि वह इस लोकपाल के समर्थन में कुछ कहना उचित समझते हैं। सच मे अगर देखा जाए तो किसी भी पार्टी ने अभी तक इस विधेयक के समर्थन में कुछ नही कहा है। यहाँ तक कि केन्द्र कि विपक्षी पार्टी भाजपा भी इस से किनारा करती नजर आ रही है। याद रहे कि यह वही भारतीय जनता पार्टी है जो कि केन्द्र सरकार को किसी भी मुद्दे पर घेरने का मौका नही छोड़ती, तो आखिर क्या बात है जो इस मुद्दे पर वह सिर्फ यही बयान दे रही है कि ना वह इसके पक्ष में है और ना ही विपक्ष में। आखिर क्या बात है जिसके कारण भाजपा भी खुलकर अपना बयान नही दे रही है। इसका सबसे बड़ा और अहम कारण है कि सिविल सोसायटी और लोकपाल की ड्राफ्टिंग कमेटी ने इस विधेयक का जो मसौदा तय किया है उसको लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों में भी संशय की स्थिति बनी हुइ है। सिविल सोसायटी का कहना है कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री के साथ-साथ न्याय पालिका को भी लाया जाए। सभी पार्टियों को लोकपाल के इस मसौदे से इस बात की चिंता सता रही है कि अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो कही ना कही से आने वाले समय में उनको भी इसका शिकार ना बनना पड़ जाए। यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इस बात की क्या गारंटी है कि लोकपाल को इतनी अधिक शक्ति और अधिकार देने के बाद इसका गलत उपयोग नही होगा। चिंता का दूसरा विषय है कि क्या लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और केन्द्रिय जाँच एजेंसियों के आ जाने के बाद निष्पक्षता बनी रहेगी?? इस बात की गारंटी कौन लेगा।
केवल लोकपाल विधेयक पारित कर देने से देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? जहाँ तक आम जनता का प्रश्न है तो यहाँ भी लोग इसकी निष्पक्षता को लेकर संशय में हैं। भारत जैसे देश में जहाँ एक चपरासी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी तक भ्रष्ट लोगो कि फेहरिस्त में शामिल हैं, क्या गारंटी है कि लोकपाल जिसे इतनी शक्ति और अधिकार मिल जाएंगे वह अपने आप को पूरी तरह से निष्पक्ष रख पाएगा। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि अपार शक्ति और अपार धन जिसे भी मिलता है वह कभी ना कभी उसके दुरूपयोग के बारे में सोचता जरूर है। यह बात और है कि वह इसका गलत उपयोग करेगा या नही यह उसकी इच्छा शक्ति और कार्यशैली पर निर्भर करता है। बहरहाल वर्तमान समय में जिस तरह का परिदृष्य है उसको देख कर यह नही लगता की लोकपाल अपने मौजूदा स्वरूप में पारित हो पाएगा।
Saturday, June 18, 2011
नौकरी
घर वाले दबाव दे रहे हैं प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष रुप से। उम्र के छब्बीसवें पड़ाव पर पहुँच कर अब लगता है कि शायद कितना भी पढ़ लो पर अगर ढ़ंग की नौकरी नहीं मिली तो सब बेकार सारे दोस्त, परिवार और सबसे जालिम समाज धीरे-धीरे अपना रौद्र रुप मेरे सामने दिखा रहा है। ऐसा नही है कि मुझमें कोई कमी है या मैं कोशिश नहीं कर रहा। पहले मैं अपने बारे में बता दूं मैं मीडिया का छात्र हूँ और पटना से इसकी पढ़ाई कर रहा हूँ। अंतिम सेमेस्टर चल रहा है और अभी से कोशिश में लगा हुआ हूं कि कहीं काम मिल जाए पर मैं जिस क्षेत्र से जुड़ा हूँ उसकी असलियत मैने देख ली। अभी हाल हीं में मैने देश के एक जाने माने और काफी नामी न्यूज चैनल में इन्टर्नशिप खत्म की है। सच मानीए सिर्फ दो महीने में ही सारी असलियत सामने आ गई।
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