कहानी शुरु होती है गांधीजी के तीन बंदरों की बातचीत से। आज के बदले हुए परिवेश में जिनका नाम बदल गया है। पहला बंदर जिसका नाम समाज है, दूसरा बंदर जिसका नाम व्यवस्था है और तीसरा बंदर जिसका नाम प्रत्यक्ष है। तीनो अपनी-अपनी वर्तमान स्थिति के परिप्रेक्ष्य में आपस में बात-चीत करते है कि गांधीजी ने समाज की क्या कल्पना की थी और असल मे समाज की स्थिति क्या है। सबसे पहले समाज कहता है---
समज—कलपते हुए “सुनो-सुनो मैं समाज हूं, आज का कथित संभ्रांत समाज जो कि केवल उपर व्यवस्थित है परंतु अंदर से बिल्कुल कुव्यवस्था का शिकार है। सभी कहते है कि मैं समाज से पृथक नहीं हूं, सभ्य सामाजिक प्राणी हूं। परंतु केवल दिखावे के लिए।” तभी उसे एक गीत याद आता है और वह गाने लगता है “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान कितना बदल गया इंसान-कितना बदल गया इंसान..” तभी दूसरा बंदर जिसका नाम व्यवस्था है वह कहता है..
व्यवस्था---“मैं वर्तमान व्यवस्था हूं। सभी के लिए नितांत आवश्यक हूं, परंतु केवल नाम मात्र का । सभी कहते हैं कि व्यवस्था बद से बदतर हो गई है, पर क्या ये कहने में शर्म आती है कि इसे खराब करने में उसका भी “शेयर” है। कहीं ना कहीं से सभी इस कुव्यवस्था में शामिल है, परंतु स्वीकार ना करते हुए पूर्ण दोषी व्यवस्था को बना देते हैं। अरे कम से कम इतना तो सोचो कि व्यवस्था स्वंय नहीं सभी के योगदान से उचित स्तर पर रहती है और सही रहती है।”
( उन दोनो की बातचीत सुन रहे तीसरे बंदर “प्रत्यक्ष” से ना रहा गया )
प्रत्यक्ष—“सबसे खराब हालत तो मेरी है, हर कोई यही यही कहता है कि वर्तमान ही खराब है। कम से कम इतना तो सोचो की अगर भूत खराब ना होता तो वर्तमान भी खराब नही होता, परंतु हमारे देश की संस्कृति एंव सभ्यता जो कि इतनी अच्छी थी उसको तुम लोगो ने ही बेपर्दा कर दिया है, एंव इसकी छवि को दागदार कर दिया है।” उसे भी एक गीत याद आता है औऱ वह गाने लगता है—“इन्ही लोगो ने ले लीना दुपट्टा मेरा”......
( दुपट्टे से आशय सम्मान से है )
तीनो की बातचीत सुनकर तो ऐसा हीं लगता है कि सच में आज के समय में इन तीनो की हालत दयनिय हो गई है। कोई माने या ना माने समाज, व्यवस्था और प्रत्यक्ष की हालत के जिम्मेदार हम और आप हैं। क्योंकि हमलोग ही समाज हैं, हम ही व्यवस्था करते हैं और हम ही प्रत्यक्ष में वर्तमान हैं।
फिर समाज कहता है...
समाज—“सभी कहते हैं कि आदर्श समाज की व्यवस्था कि कल्पना करना भी बेमानी है। सब ये कहते हुए जरा भी नहीं शर्माते, वो शायद भूल गए हैं कि वर्तमान, व्यवस्था और मैं “समाज” तीनो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तुम सब पर हीं आश्रित हैं।” तुम जैसा आवरण दोगे हम उसी तरह नजर आएंगे।
व्यवस्था—“तुम ठीक कहते हो समाज, हम सभी की डोर मनुष्यों के हांथ मे है। सभी दोषारोपण करते हैं क्योंकि तुम और मैं और प्रत्यक्ष किसी एक के ना होकर एक दूसरे से संबंधित हैं, इसलिए कोई फिक्र नही करता, यही कहते हैं “मैं ठीक हूं और किसी से मेरा क्या लेना देना।”सभी स्वार्थी बन गए हैं और सभी का यही मोटो है कि अपना काम बनता भाड़ मे जाए जनता। ”
प्रत्यक्ष—“तुम लोग सही कह रहे हो आज का हर इंसान यही सोचता है कि मैं ठीक हं सभी की चिंता क्यों करूं, कितना स्वार्थी हो गया है आज का मनुष्य। समाज एक परिवार की तरह है, व्यवस्था उसकी रीढ़ है और मैं यानी प्रत्यक्ष उसका आवरण हूं। सब यह सोचते हैं कि मेरा परिवार, मेरा घर कैसे अच्छा रहेगा । कम से कम इतना तो सोचो कि अगर महात्मा गांधी और भगत सिंह और वो सभी स्वतंत्रता सेनानी भी ऐसा ही सोचते तो आज भी हम किसी गुलाम की जिंदगी जी रहे होते और तब क्या करते अपने परिवार के लिए। जिस तरह तुम अपने परिवार, उसकी व्यवस्था और उसके आवरण के लिए मरने-मारने को उतारू हो जाते हो। उसके सम्मान की रक्षा एवं उसकी स्वरूप को सही आकार देने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हो। उसी तरह समाज, व्यवस्था और मै यानि प्रत्य़क्ष भी वही चाहते हैं। कम से कम इतना तो सोचो कि हम भी एक परिवार हैं जिनको एक सूत्र मे पिरोकर रखना तुम सबकी जिम्मेदारी है। अब समय आ गया है कि तुम अपनी मानसिकता, उस संकरी मानसिकता से बाहर निकलो जिससे तुम केवल मैं, और मेरा सोचते हो, तुम्हे अगर सच मे सभ्य समाज, सुन्दर व्यवस्था एवं आदर्श प्रत्यक्ष चाहिए तो “हम, हमारे एंव हम सभी का” की परिकल्पना को साकार करो। तभी मैं और मेरे दोनो अक्स समाज और व्यवस्था भी सच में सफलतापूर्वक सक्षम होकर तुम्हारे समक्ष एक सफल समाज, सुन्दर व्यवस्था और मनोरम प्रत्यक्ष का निर्माण कर पाएंगे।”
इतना सुनकर समाज कहता है......
समाज—“चुप कर प्रत्यक्ष तुम्हारी ये बातें इनके आगे बेकार हैं। इनकी स्थिति उस भैंस की तरह है जिसके सामने बीन बजाने से कोई फर्क नही पड़ता है। अरे जब हमारे राष्ट्रपिता महात्मां गांधी का त्याग, उनका बलिदान इनकी बुद्धी पर जमी गर्द नही हटा पाया तो हम क्या कर लेंगे। आज हर व्यक्ति उस नोट की पूजा करता है जिस पर उन्ही महात्मा गांधी की तस्वीर है। पर क्या आज तक कभी किसी ने उस नोट पर के महापुरूष के सपनो के बारे में सोचा है जिनमें उन्होने भारत के जिस रूप की कल्पना की थी। यहां सब अपना हित देखते हैं। मैं ठीक हूं, मेरा परिवार ठीक है बस मुझे किसी और से क्या लेना देना। इन नासमझों को इतनी भी अक्ल नही है कि अगर इनके जैसी भावना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की होती तो अपने आप को सभ्य और संभ्रांत समझने वाले ये लोग किसी विदेशी के घर में उसके बाथरुम को साफ कर रहे होते। अरे जब इन्हें उनका बलिदान, देश के लिए मर मिटने का जज़्बा तक नहीं बदल पाया तो तू या मैं कैसे बदल सकते हैं।”
दोनो की बातचीत को व्यवस्था सुन रहा था। उसने कहा-----
व्यवस्था—“क्या करें भाई हम लोग तो इनके हाथों की कठपुतलियां बनकर रह गये हैं। जैसे चाहते हैं नचाते हैं, एवं गलती स्वयं करते हैं और दोष हमको देते हैं। जब देश का संविधान बना तो उसमे व्यवस्था यानि मेरा स्थान बहुत उपर था पर आज मेरी हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो गई है, ना घर का रहा ना घाट का। मैं पूछता हूं कि जब तुम हमारा हित नही सोच सकते तो हमारे बारे में गलत व्याख्या करने का हक तुम्हे किसने दिया है ? अपने हित और अहित के बारे में सभी सोचते हैं पर क्या तुमने कभी किसी और के हित के बारे में सोचा ? नहीं, क्योंकि तुम बस यही सोचते हो कि इस काम से मेरा हित होता है तो वह सबसे अच्छा है, भले हीं उससे कई अन्य लोगों का अहित हो। शर्म करो ऐ बेशर्मों अब तो शर्म करो। गांधीजी की आत्मा भी दुखी और कुंठित हो रही होगी कि आज उस आर्यावर्त की को क्या हो गया है जिसमे कभी उनकी कर्मभूमी थी।“
प्रत्यक्ष—“अरे छोड़ो यार उन देशभक्त महापुरूषों को क्यों बीच में घसीटते हो। आज के समय में उनके उपदेशों का सही स्थान जानते हो कहां है ? सरकारी दफ्तरों की दीवारों पर, रेलवे स्टेशनो पर एंव उस समय के जीवित साहित्यकारों की रचनाओं में, जहां सरकारी दफ्तर में उनकी तस्वीर के नीचे भ्रष्टाचार की दुकान खुली हुई है, रेलवे स्टेशनो पर लघु शंका उतारी जाती है, एवं साहित्यकारों के साहित्य की धज्जियां उड़ाकर उनमें चना, मूंगफली खाकर कचरे में फेंक दिया जाता है। और तो और कभी अगर भूले भटके उनकी याद आती है तो केवल उनके वक्ताओं, उनके रचनाकारों की जन्मतिथी एवं पुण्यतिथी पर जब बड़े-बड़े नेता एंव अपने आप को तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता कहलाने वाले महानुभावों द्वारा उनके विचारों का रट्टा लगाकर व्याख्या कर दी जाती है। इनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण किया जाता है, साल भर तो उनका आदर सत्कार पक्षी करते हीं हैं। अरे अगर सच मे सम्मान करना है तो उनकी प्रतिमाएं अपने दिल मे बनाओ, उनके विचारों को अपने जीवन में आत्मसात करो। ”
समाज—“बस कर यार किससे बात कर रहा है, तुझे क्या लगता है आज के ये स्वार्थी और केवल अपना हित चाहने वाले व्यक्ति विशेष और उनके इशारे पर नाचने वाले तथाकथित सभ्य समाज के अति सामाजिक प्राणी तेरे गला फाड़ने से सम्भल जाएंगे ? नहीं अरे जब 1857 से 1947 तक कही गई बात का इनपर असर नहीं हुआ तो अब क्या होगा। सब मुझको कहते हैं कि मैं बुरा हूं, पर क्या आज तक किसी ने अपने आप को कहा की मै बुरा हूं, मुझमे बुराई है ? नहीं, सभी अच्छे हैं मैं बुरा हूं। शर्म करो मुझे बुरा कहते हो सबसे घटिया तो तुम हो, सोचो कि जिन्हे तुम चुनकर मेरा निर्माण, मेरी व्यवस्था एवं मेरा प्रत्यक्ष बनाने का जिम्मा देते हो वही तुम पर राज करते हैं तानाशाह की तरह। कभी तो शर्म करो जिन्हें हमारा निर्माण करने के लिए चुनते हो वो अपना निर्माण करने में लग जाते हैं। इस अपना और हमारा के द्वंद में उलझकर हमारी स्थिति इतनी दयनीय हो गई है ।”
व्यवस्था—“मैं कहता हूं व्यर्थ का रोना-धोना छोड़ो मुझे दोष देने के बजाय अपना दोष ढूंढ़ो और उसको दुर करो, व्यवस्था यानी की मैं खुद-ब-खुद व्यवस्थित हो जाउंगा। सभी की तरह मत सोचो की मैं नहीं, वो क्यों नहीं। सोचो कि शुरूआत तो किसी ना किसी को करनी हीं है तो मैं क्यों नहीं। सदा यही सोचो की जो रामधारी सिंह दिनकर जी ने कहा है...
“मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है”
तो जागो और परिवर्तन की लहर उठा दो, क्योंकि बूंद-बूंद करके ही सागर बनता है, बूंदे देखने में छोटी होती हैं पर जब जमीन पर गिरती हैं तो उतनी मिट्टी को अपने में समेट कर बांध लेती हैं। उसी बूंद को प्रेरणा स्त्रोत मानो।“
प्रत्यक्ष—“जिस प्रकार व्यवस्था ने कहा ठीक उसी तरह मैं भी कहना चाहूंगा कि भविष्य को अगर, अच्छा, सुन्दर और सुखद बनाना है तो अपने भूत से प्रेरणा लो, सीखो की तुम्हे क्या करना था और तुम क्या कर रहे हो । मै ये नही कहता की गलतियां किसी से नही होती, गलतियां सब से होती हैं। अगर गलतियां नहीं करोगे तो सीखोगे कैसे । किसी ने ठीक ही कहा है---
“ शाम सूरज को ढलना सिखा देती है शमा परवाने को जलना सिखा देती है
गिरने वाले को होती है तकलीफ मगर ठोकर इंसान को चलना सिखा देती है ।“
इसलिए अपने द्वारा की गई गलतियों से सबक लेकर वर्तमान में अपने आप को बदल कर, वर्तमान में अच्छा कार्य करके अपना भविष्य उज्जवल और सार्थक बनाओ।
समाज—“मेरा अस्तित्व तो मनुष्यों के हांथो में है, किसी भी समाज का निर्माण एवं उसकी सरंचना उसके निर्माता यानि की मनुष्यों पर निर्भर करती है। इसलिए सबसे पहले अपना निर्माण करो, अपने आप को बदलो एवं अपना चरित्र निर्माण करो, क्योंकि किसी भी समाज का आचरण और उसकी पहचान उसके अंतर्गत आने वाले मनुष्यों को आचरण को आधार पर हीं तय की जाती है। जैसे मनुष्य होंगे वैसा हीं समाज होगा ।” या यूं कहे कि जैसी वहां के इंसानो की सोच होगी वैसी हीं वहां के समाज की तस्वीर होगी। “इसलिए अपने आप को बदलो अपनी सोच को बदलो, अपने आचर को बदलो, अपने विचारों को बदलो समाज अपने आप बदल जाएगा।” इसके लिए किसी ने ठीक कहा है—
“सोच को बदलो सितारे बदल जाएंगे, नज़र को बदलो नज़ारे बदल जाएंगे
कश्तियां बदलने की ज़रूरत नहीं, सोच को बदलो किनारे बदल जाएंगे ।
मेरे द्वारा लिखित यह लेख यूं तो कुछ कटाक्ष जैसा प्रतीत होता है, परंतु यह कटाक्ष नहीं यथार्थ है, हमारे समाज, व्यवस्था एंव प्रत्य़क्ष या वर्तमान की । यूं तो सब कुछ जो हो रहा है उसे पूर्ण रुप से लिखने के लिए विस्तृत रुप से व्याख्या करनी होगी। इसके आगे भी मै सतत प्रयास करूंगा कि सामाजिक स्तर पर फैली समस्याओं को निरुपित करुं। यहां पर इस लेख के माध्यम से मैने संदेश देने की चेष्टा की है कि किसी भी समाज एंव उसमें उसके निर्माता तत्वों को किस प्रकार से व्यवस्थित करके सफल समाज की स्थापना करें।
सुधीर कुमार सिंह.
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