ज़िंदगी को कुछ यूं देखा करीब से मैने
जो सोचा था उससे काफी दूर दिखी मुझे
कहां तो सपनों में एक आकाश था उनमुक्त
यहां से वहां वहां से यहां उड़ता फिरता था
जीवन की कठोरता से तब नही था वाकिफ
बस यही सोचता था की आज हीं है सब कुछ
कल की चिंता नही थी जब तक मन में
मन था बादल और दिल था मोर
जीवन के हर पहलु से जब होने लगी तकरार
तब जाना की सपने तो सच में हीं
होते हैं कांच की तरह क्षणभंगुर
देखने में तो लगते हैं काफी मोहक पर
टूट कर बिखर जाते हैं एक हीं ठोकर पर
सब कहते हैं की हौंसला रखो तुम दोस्त
पर कोई बताए हौंसला दिखता कैसा है
दिखने की छोड़ो मिलता कहां है, कोई बताए
आज हीं कुछ खरीद कर रख लूंगा अपने पास
कहते हैं की अंदर हीं रहता है खुद के
मानता हूं मैं ये बात मगर, कोई मुझे बताए
कब तक रखूं मैं हौंसला आखिर कब तक।
बार बार टूटते और बिखरते सपनों के सन्दर्भ में जायज प्रश्न - कब तक रखूं हौसला?
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