एक तरफ अन्ना हजारे और बाबा रामदेव कमर कस कर खड़े हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए जब तक लोकपाल का ठीक वैसा ही मसौदा केन्द्र सरकार और तमाम राजनीतिक पार्टियां नहीं मान लेती जैसा कि अन्ना और बाबा रामदेव चाहते हैं। तब तक उनका आंदोलन जारी रहेगा। वही कांग्रेस के ढुलमुल रवैये से नहीं लगता की वह इतनी आसानी से अन्ना और रामदेव की बात मान लेगी। इस बात कि पुष्टि करने के लिए कांग्रेस का यह बयान ही काफी है कि सर्वदलीय बैठक में कोइ भी नतीजा निकलकर नहीं आया और सभी पार्टियों से दोबारा बातचीत की जाएगी। हालाकि केवल कांग्रेस को ही अकेले इस बात से एतराज नहीं है कि प्रधानमंत्री को भी इस लोकपाल के दायरे में लाया जाए। यहा सबसे अहम सवाल यह खड़ा होता है कि क्या सच में लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? क्या गारंटी है कि लोकपाल जो भी फैसला करेगा वह पक्षपात पूर्ण नहीं होगा ?
यहाँ सबसे बड़ा और अहम सवाल यह खड़ा होता है कि क्या जिस भारत की जनता का हवाला देकर सभी लोकपाल और जन लोकपाल की आवाज़ को इतना उपर उठा रहे हैं, उस जनता का इस मुद्दे पर क्या सोचना है। क्योंकि आज भी भारत की 60 प्रतिशत जनता या तो गरीबी रेखा के नीचे है या फिर उस लकीर के समानांतर है जो भारत की सरकार ने खींच रखी है। अब सवाल यह है कि क्या लोकपाल सच में उस लकीर के समानांतर चल रही जनता के हित में है या केवल एक दिखावा मात्र है, अगर दिखावा है तो और कितना छलेंगे आप इस जनता को जिसे यह हक तो दे दिया गया है कि वह यह तय करे कि किसे मुखिया चुना जाए पर सच में अगर जरूरत है तो उन्हे इस बात का अधिकार देने की जिस तरह से वह किसी को चुनते हैं ठीक उसी तरह उनको हक है कि वह जब चाहे उनको हटा सके जिनका चुनाव उन्होने किया था यह सोचकर की वह उनके हिमायती हैं। किसी भी राजनीतिक पार्टी का रवैया देख कर नही लगता कि वह इस लोकपाल के समर्थन में कुछ कहना उचित समझते हैं। सच मे अगर देखा जाए तो किसी भी पार्टी ने अभी तक इस विधेयक के समर्थन में कुछ नही कहा है। यहाँ तक कि केन्द्र कि विपक्षी पार्टी भाजपा भी इस से किनारा करती नजर आ रही है। याद रहे कि यह वही भारतीय जनता पार्टी है जो कि केन्द्र सरकार को किसी भी मुद्दे पर घेरने का मौका नही छोड़ती, तो आखिर क्या बात है जो इस मुद्दे पर वह सिर्फ यही बयान दे रही है कि ना वह इसके पक्ष में है और ना ही विपक्ष में। आखिर क्या बात है जिसके कारण भाजपा भी खुलकर अपना बयान नही दे रही है। इसका सबसे बड़ा और अहम कारण है कि सिविल सोसायटी और लोकपाल की ड्राफ्टिंग कमेटी ने इस विधेयक का जो मसौदा तय किया है उसको लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों में भी संशय की स्थिति बनी हुइ है। सिविल सोसायटी का कहना है कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री के साथ-साथ न्याय पालिका को भी लाया जाए। सभी पार्टियों को लोकपाल के इस मसौदे से इस बात की चिंता सता रही है कि अगर यह विधेयक पारित हो जाता है तो कही ना कही से आने वाले समय में उनको भी इसका शिकार ना बनना पड़ जाए। यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि इस बात की क्या गारंटी है कि लोकपाल को इतनी अधिक शक्ति और अधिकार देने के बाद इसका गलत उपयोग नही होगा। चिंता का दूसरा विषय है कि क्या लोकपाल के घेरे में प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और केन्द्रिय जाँच एजेंसियों के आ जाने के बाद निष्पक्षता बनी रहेगी?? इस बात की गारंटी कौन लेगा।
केवल लोकपाल विधेयक पारित कर देने से देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा ? जहाँ तक आम जनता का प्रश्न है तो यहाँ भी लोग इसकी निष्पक्षता को लेकर संशय में हैं। भारत जैसे देश में जहाँ एक चपरासी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी तक भ्रष्ट लोगो कि फेहरिस्त में शामिल हैं, क्या गारंटी है कि लोकपाल जिसे इतनी शक्ति और अधिकार मिल जाएंगे वह अपने आप को पूरी तरह से निष्पक्ष रख पाएगा। क्योंकि हम सभी जानते हैं कि अपार शक्ति और अपार धन जिसे भी मिलता है वह कभी ना कभी उसके दुरूपयोग के बारे में सोचता जरूर है। यह बात और है कि वह इसका गलत उपयोग करेगा या नही यह उसकी इच्छा शक्ति और कार्यशैली पर निर्भर करता है। बहरहाल वर्तमान समय में जिस तरह का परिदृष्य है उसको देख कर यह नही लगता की लोकपाल अपने मौजूदा स्वरूप में पारित हो पाएगा।
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