Sunday, August 15, 2010

अर्थ

टूटी झोंपड़ी गरीब की बसाता नहीं कोई
    वीरान सी इन बस्तियों को बसाता नहीं कोई
उजड़े हुए चमन लगता नहीं कोई
    पत्थर बरस रहे हैं गरीबों के सरों पर
क्या ज़ुल्म हो गया है बताता नहीं कोई
      नारा तो लगाते हैं की सब की जागते रहो
बातों की मीठी नींद गंवाता नहीं कोई
       करते तो हैं सभी संघर्ष की बातें
शंखनाद इस पहल का बजाता नहीं कोई
        बनने को बन जाते हैं सभी धर्मं के रहनुमा 
धर्म इंसानियत का निभाता नहीं कोई 
        भाई ही यहाँ दुश्मन बना है भाई का 
फिर भी आज राम को क्यों पूजता है कोई 
        कहने को तो हम सभी एक हैं मगर 
आँगन में दीवार क्यों खींचता है कोई 
        सब कहते हैं की मैं हिन्दुस्तानी हूँ मगर 
फ़र्ज़ वतनपरस्ती का निभाता नहीं कोई 
         मेरा राज्य - मेरा राज्य कर रहे सभी
मेरा मुल्क मेरा वतन कहता नहीं कोई
         मैं आसामी,मैं मराठी तो कह रहे सभी
मैं हिन्दुस्तानी हूँ गर्व से कहता नहीं कोई,कहता नहीं कोई,कहता नहीं कोई |

यही दशा है हमारे भारत की | क्या इसी भारत की तस्वीर हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने |जिन्होंने अपने प्राण तक हँसते हँसते इसी भारत के लिए न्योछावर कर दिए थे | ज़रा सोचिये और सोच कर बताईये|

Saturday, August 14, 2010

मेरी आज़ादी

आज़ादी एक ऐसा शब्द,एक ऐसा जज़्बा जो किसी भी इंसान के लिए इतना अहम है की उसकी कल्पना मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है | आज से ठीक ६४ साल पहले जब स्थिति आज के बिलकुल विपरीत थी, जब हम लोग वर्षों की कठोर साधना के फल का इंतज़ार कर रहे थे | सरदार पटेल,सुभाष चंद्र बोस ,खुदीराम बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद , महात्मा गांधी जैसे भारत के वीर सपूतो का बलिदान हमे आज़ादी का अनमोल तोहफा देने की तैयारी में थे| तब के समय और आज के समय में ज़मीन आसमान का अंतर आ चुका है| आज मैं आज़ाद तो हूँ पर क्या मैं सच में आज़ाद हूँ  ? मुझे मेरे सारे अधिकार  प्राप्त हैं,पर क्या मैं सच में आज़ाद हूँ ? मुझे जीने की आज़ादी है पर क्या मैं आज़ाद हूँ ? मुझे मेरे संविधान ने बहुत से अधिकार दिए हैं, मुझे मेरे विचारों को व्यक्त करने की आजाद्दी तो दी है पर क्या सच में मैं आजाद हूँ ? नहीं मैं आज़ाद नहीं हूँ | ६४ साल पहले मैं अंग्रेजों का गुलाम था और आज, आज अपने द्वारा चुने गए जन प्रतिनिधियों का गुलाम हूँ | सभी जानते हैं की घर का भेदी लंका दाहे| पर बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है | कोई बोले भी तो क्यों  बोले | बस यही बोलते हैं की मेरा क्या जाता है | सोच कर अफ़सोस होता है की मैं आज़ाद हूँ , अफ़सोस इसलिए की मैं आज़ाद तो हूँ पर केवल नाम मात्र के लिए , मैं तो बस एक कठपुतली बन चुका हूँ अपने इस महान देश के महानतम नेताओं का | इससे अच्छा तो पिंजरे में बंद पंछी है जो कम से कम ये जानता तो है की मैं कैद हूँ, गुलाम हूँ | पर मेरा क्या मैं तो एक अनजान से बंधन में खुद को जकडा हुआ पाता हूँ | मैं तो बस ये जानता हूँ की मैं ये तो नहीं बता सकता की अज्ज़दी के पहले लोगों की मानसिक दशा कैसी थी ? पर इतना ज़रूर जानता हूँ की मैं "सच में आज़ाद नहीं हूँ "|

Monday, August 9, 2010

बदलाव

कहते हैं की जब इंसान किसी तंत्र से उब जाता है तो उसको उसे बदलने की ज़रूरत महसूस होने लगती है | पर क्या समस्या का समाधान तंत्र को बदलने से हो जायेगा ? नहीं क्योंकि केवल तंत्र को बदलने से काम नहीं चलने वाला | अगर सच में समस्या का समाधान चाहिए तो पहले हर एक इंसान को अपने अंदर झाँक कर देखना चाहिए की क्या सच में उसको तंत्र को बदलने की आवश्यकता है या सबसे पहले स्वयं को बदलने की ज़रूरत ? सही मायनों में देखा जाये तो किसी भी व्यक्ति विशेष को सबसे पहले स्वयं को बदलना चाहिए तभी वो किसी और से बदलाव की उम्मीद रखने के काबिल है | कहने का मतलब ये है की हाल के दिनों में बिहार विधान सभा में जो भी घटनाएं हुई , उसके बाद ये आवाज़ बुलंद होने लगी की हमारे संविधान को पुनर्लेखन की आवश्यकता है |जी नहीं मैं इससे बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ | ज़रा गौर से सोचे तो ये पता चलेगा की आज से ६० साल पहले जब संविधान का निर्माण किया गया था तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी की आगे चलकर स्थिति इतनी भयावह हो जायेगी | असल में हमारे संविधान में पुनर्लेखन की आवश्यकता नहीं है | आवश्यकता है हमे हमारी सोच को बदलने की | क्योंकि कही न कहीं से इस स्थिति के लिए खुद हम ही जिम्मेदार हैं | हम लोग ही हमारे जन प्रतिनिधियों कका चुनाव करके उन्हें अधिकार प्रदान करते हैं हमारे भविष्य के निर्माण की | तो इसके लिए स्वयं हम ही ज़िम्मेदार हैं | पहले अपने आप को बदलिए सबकुछ अपने आप परिवर्तित हो जायेगा | समस्या का समाधान ये नहीं की हम समस्या से मुह मोड ले \ समाधान ये है की उस समस्या के कारणों पर विचार करके उसका समाधान निकालें |